अंजू निगम का लघु कथा संग्रह साँझा दर्द

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vivratidarpan.com - राष्ट्रीय शब्द और राग समूह की उत्तराखंड राज्य की अध्यक्ष , बेहतरीन लघु कथाकार, कवयित्री, गजलकार देहरादून निवासी अंजू निगम से मेरा परिचय सोशल मीडिया के फेस बुक पोर्टल पर हुआ था, करीब तीन साल पहले, एक दूसरे की पोस्ट को पढ़ते और उस पर टिपण्णी करते कब एक दूसरे को समझने लगे ये पता ही नहीं चला। आज ये कहना मुश्किल है कि कौन किसको बेहतर समझता है क्योंकि इन तीन सालों में दोनों की ज़िन्दगी में बहुत से मोड़ आए टेडे और उलझे पर हमारी आपसी समझदारी हर मुश्किल लम्हे को सरल करती गई।

अंजू निगम संवेदनशील हैं, हर छोटी से छोटी बात जो किसी को आम लग सकती हैं वो बात अंजू के मन पर गहरे प्रभाव उंडेल देती हैं। इस बात का अनुभव मुझे पहले भी था पर अंजू निगम का पहला लघुकथा संग्रह साँझा दर्द पढ़ने के बाद मेरे इस अनुभव को जैसे हस्ताक्षर मिल गए। अपनी बात कहने से पहले मैं मेरी साथी लघु कथाकार को उनके प्रथम प्रयास के लिए दिल से बधाई देती हूँ । इस संग्रह का इंतजार मुझे भी उतना ही था जितना लेखक को क्योंकि मेरे हृदय कि इच्छा थी कि लेखक के परिचय में प्रकाशन का स्थान अब रिक्त न रहे।

अंजू निगम ने अपना ये संग्रह साँझा दर्द अपनी माँ को समर्पित किया है, तो अपनी बात कहने से पहले मैं सर्व प्रथम श्रीमती मंजू श्रीवास्तव जी को सादर नमन करती हूँ । मुझे ज्यादा खुशी होती अगर लेखिका अपनी माँ की तस्वीर भी साथ में संगलन करती।

 इस संग्रह को आदरणीय डाक्टर मिथिलेश दीक्षित जी का आशीर्वाद प्राप्त हुआ । आपने अपनी स्नेह पाती में लिखा कि , सार्थक सृजन की दृष्टि से वर्तमान में लघुकथा के क्षेत्र में जिन स्तरीय रचनाकारों का नाम आदर के साथ लिया जाता हैं उनमें एक नाम अंजू निगम का भी हैं । संग्रह की भूमिका और संग्रह का प्रारूप तैयार किया वामा साहित्य की ज्योति जैन जी ने । वे अपनी बात में लिखती हैं कि अंजू का ये प्रथम संग्रह पाठकों के बीच अपनी पैठ भी बना पाएगा । इस संग्रह में 85 लघुकथाएं हैं जिनको पढ़ने के बाद भारत के अलग अलग राज्यों के खान पान, वेशभूषा, बोली और संस्कृति की झलक पाठक के मन को भिगो देती हैं । लगभग हर लघुकथा में आंचलिक भाषा का समावेश और प्रादेशिक भाषा से निकले शब्दों को पढ़ पाठक उक्त घटना को और उनसे जुड़े पात्रों को अपने आस पास घटित हुआ हो ऐसा महसूस करने लगता है ।

वरिष्ठ लघुकथाकार एवम लघुकथा के परिंदे समूह की अध्यक्ष कान्ता राॅय जी अपने द्वारा प्रकाशित बाल मन की लघुकथाएं में लिखती हैं कि, व्यक्ति के अन्दर निहित चिन्तक प्रवृत्ति का प्रतिफल है लघुकथा । लघुकथा बन्द कली की तरह हो न कि खिले हुए पुष्प की तरह । इस कथन कि पुष्टि करती हैं अंजू निगम की कुछ रचनाएं जैसे संग्रह की प्रथम लघुकथा खत में इस पंक्ति को देखे, बाऊ जी ने एक तीखी नजर  माँ पर डाली । " तो सबकी बातें होती है ?" अब इस एक पंक्ति में कितने ही भावों का समावेश है जो हर पाठक अपने हिसाब से तय करेगा । संग्रह की दूसरी लघुकथा पवित्र माटी की ये पंक्ति देखे, शाप्तो के घर का आंगन आज पवित्रता से भरा था । इस पंक्ति को पढ़ पाठक स्वयं, वेश्यागृह को अपनी कल्पना से देखेगा और पंक्ति के अर्थ को अपनी बौद्धिक क्षमता के हिसाब से समझेगा ।

एक जगह कान्ता रॉय जी लिखती हैं, लघुकथा विसंगतियों की कोख से जन्म लेती हैं यानी जन्म लेती हैं .। विसंगतियां दूर हो उसके लिए नवीन सोच लिखना ही लघुकथा है । जब तक नवीन दृष्टिकोण का सृजन नहीं होगा तब तक विसंगतियों की कोख से लघुकथा जन्म नहीं लेगी । लेखक को समाज का डॉक्टर कहा गया है । कथाओं में विसंगतियों को चिन्हित करना अर्थात आपने बीमारी डायग्नोसिस तो कर ली लेकिन लेखक ने डॉक्टर होने कि भूमिका कहाँ निभाई ?

इस लघुकथा संग्रह में लेखक अंजू निगम अपनी लघुकथा अतिक्रमण के माध्यम से स्त्री कि मनोदशा को दर्शाते हुए  लिखती हैं " आपका फैसला, उनका फैसला और मेरा फैसला ?" लघुकथा नासूर के माध्यम से बच्चे कि परवरिश पर ध्यान न देने और उसकी गलतियों पर आँखो का पर्दा गिरा रहने के परिणाम को ये पंक्ति दर्शाती हैं , इस एक बात की तो अम्मा को राहत थी पर आज तो झोली में जो एक चीज बची थी उसे भी बचवा ने बेच दिया । लघुकथा पंडिता की ये पंक्ति पढ़े, उस रात मैं माँ की भूमिका में रहा । माँ ने कैसा कायापलट किया है । अब इन दोनों पंक्तियों को आप जितनी बार पढ़ोगे उतनी बार अलग अर्थ और भाव आप तक पहुंचेंगें, यही होती है कलम की जादूगरी। लघुकथा बराबरी की नायिका संज्ञा ने कुछ ठाना और उन पत्रिकाओं के ई मेल ढूंढने लगी जो शायद ऐसे ही किसी वक्त के लिए एकत्र कर रही थी । अब इस पंक्ति को पढ़ने के बाद पाठक इस पंक्ति से खुद को जोड़ेगा की उसने क्या -  क्या संजो कर रखा है मन और घर में ।

जाने माने लघुकथाकार डॉक्टर सतीश दुबे जी एक जगह लिखते हैं कि हमारे द्वारा लिखी अधिकतर लघुकथाएं छोटे - छोटे रिपोर्ताज है । जो लघुकथा के लिए भारी खतरा है । प्रश्न ये हैं कि क्या हमारे लघु कथाकार की सोच क्या इस वर्णनात्मक रूढ़ संची में इतनी बंध गई है कि वह इससे बाहर लघुकथा के स्वरूप की कल्पना भी नहीं कर पा रहा । हम इस बात को ऐसे समझ सकते हैं कि, हर लेखक गरीब, दु:खी, बीमार, पीड़ित या शराबी, जुआरी नहीं होता फिर वो इन विषयों पर अपनी कलम चला कर यतार्थ प्रस्तुति कैसे कर देता है ?  ये जो प्रस्तुतीकरण करने का गुण हैं वहीं तो उसे लेखक बनाता है । देखा या सुने हुए को ऐसे के ऐसे लिखना तो रिपोर्टर का काम होता है । लघुकथाकार की लेखन क्षमता का आभास हमें तब होता है जब वो घटना क्रम के पहले और बाद का प्रस्तुतीकरण अपनी लेखनी से पाठक वर्ग तक पहुंचाता है। घटना होने का मुख्य कारण और घटना होने के बाद उसका प्रभाव जब लेखन व्यक्त करता है तब पाठक उन लघुकथाओं को पढ़ कर अपने आपको उनमें से एक पात्र के रूप में पाता हैं । इस लघुकथा संग्रह की  लघुकथा संवाद, की ये पंक्ति देखे , एक मकसद तो मिल ही चुका है फिर से जी उठने के लिए । पाठक इस पंक्ति में खुद को खोजेगा और अब अपने मकसद को तलाशेगा । लघुकथा चेहरे के माध्यम से बिजली बचत पर जोर दिया गया, पढ़े ये पंक्ति, श्रीमती के कड़वे पर खरे बोल अपना काम कर ही गए हैं । अब ऑफिस में भी शर्मा जी का सुधार अभियान चल रहा है । बेवजह चलते पंखों और लाइट्स को बन्द करने और जरूरत पड़ने पर ही इस्तेमाल करने की सख्त हिदायत दी है ।

लगभग सभी लघु कथाकार ये कहते और लिखते हैं कि लघु कथाकार का ये प्रयास होना चाहिए कि लघुकथा के होने वाले अंत को अंतिम भाग तक छुपाकर रखे । इस संग्रह में संकलित लघुकथा दो पहलू, कि आखिर की पंक्ति देखे, " तुम्हारी बीमारी में मैंने जो कर्ज लिया था उसकी किस्ते अब तुम चुकाओगे । ऐसा न करने पर तुम्हारी चल - अचल संपत्ति जब्त कर ली जाएगी । बेटे के हाथ में पिता कि वसीयत फड़फड़ा रही है ।  लघुकथा बेफिक्र सा आलम कि ये अंतिम पंक्ति देखे, आज भी तो अम्मा के बिना सारे काम हो ही रहे थे फिर अम्मा के जीते जी क्यों हम उन्हें कोई आराम नहीं दे पाए । लघुकथा पर्सनल स्पेस की ये अंतिम पंक्ति देखे, शादी तय हो जाने के बाद वियोम ने कहा तो था कि वह पति पत्नी में भी पर्सनल स्पेस का होना जरूरी समझता है पर इस हद तक , ये बताना वह भूल गया था । लघुकथा भूखे पेट भजन कि ये अंतिम पंक्ति देखे, " बीबी जी मैं ये बड़ी - बड़ी बाते न जानती । मैं इतना जानती हूँ कि आदर से पेट न भरे हैं । लघुकथा लॉकर की ये अंतिम पंक्ति देखे, " परसी थाली जब सामने से हटती हैं, तब कैसा लगता है ?" आज तुम दोनों को इसका एहसास हुआ होगा । लघुकथा भूख की ये अंतिम पंक्ति देखे, "जब तक काम नहीं मिलता तब तक उसे भी एक बखत की ही भूख लगेगी।"

लघुकथा कलश के संपादक वरिष्ठ लेखक योगराज प्रभाकर जी लिखते हैं कि, दुर्भाग्य से आज कल लघुकथा में समस्या पूर्ति का स्थान आशुलेखन ने ले लिया है । जो की चिंता का विषय है । आशुलेखन एक तात्कालिक अभिव्यक्ति का नाम है जबकि समस्या पूर्ति एक गंभीर प्रक्रिया है । कई बार अलग - अलग प्लेटफार्म पर लघुकथा लेखन प्रतियोगिता का आयोजन होता है जिसमें लेखन के लिए विषय, सीमा, समय के साथ दिया जाता है । योगराज जी लिखते हैं कि लघु कथाकारो और आयोजकों को भी इस बात का ख्याल रखना होगा कि समस्या पूर्ति महज खाना पूर्ति ही बन कर न राह जाए । इसके लिए आयोजकों को लीक से हट कर विषय चुनना होगा।

अब इस बात की पुष्टि करता है ये संग्रह। अपने प्रथम लघुकथा संग्रह में अंजू निगम ने बहुत से विषयों को समेटने की कोशिश की है जैसे विश्वास, उम्र, गौरैया, परीक्षा, मंथन, बैसाखी, बदलती बयार, काश, मुस्कुराते दर्द, तुझे सलाम, दोस्ती, बुनकर, महादान, टिकट प्लीज इत्यादि

योगराज प्रभाकर जी लघुकथा कलश के एक अंक में  लिखते हैं कि, अधिकांश नवोदित लेखक लघुकथा में काल खंड दोष को लेकर भ्रमित नहीं है । आज का नवोदित न तो लघुकथा के आकार को लेकर भ्रमित हैं न प्रकार को लेकर । आज आवश्यकता है वरिष्ठ और कनिष्ठ का अंतर भूलकर सभी को एक समान मौका और मैदान उपलब्ध करवाने का । मैंने अपने अनुभव से ये महसूस किया हैं कि योगराज जी जैसा लिखते हैं वैसा उनके व्यवहार से झलकता भी हैं, बात पुरानी हैं लघुकथा कलश के लिए मैंने अपनी तीन लघुकथाएं प्रकाशन के लिए योगराज जी को मेल कि थी उन तीन लघुकथाओं में से एक थी मेरे द्वारा लिखी लघुकथा , बोतल में जिस्म इस लघुकथा को पढ़ने के बाद सर ने मुझे व्हाट्स ऐप किया था bravo ..वरिष्ठ लेखक के द्वारा प्राप्त हुई इस प्रतिक्रिया ने मुझमें पहले से भी ज्यादा जोश का संचार किया यही होना चाहिए एक सीनियर का कर्तव्य की वो अपने से छोटे को प्रोत्साहित करे न की कमियां निकाल कर हतोत्साहित ।

अंजू निगम का क्योंकि ये प्रथम लघुकथा संग्रह है तो इसमें अल्हड़पन, कच्चापन लाजमी है और वो ही इस संग्रह की खूबसूरती को चार चांद लगाता है। कहीं कहीं लघुकथा , लघु कथा के रूप में दिखी, कहीं कहानी की तरह रूप रेखा के साथ तो कहीं लेखकीय प्रवेश के साथ पर इन सबसे इतर जब आप इस संग्रह की हर लघुकथा पढ़ोगे तो आपको इनका विस्तृत शब्द कोश और आंचलिक भाषा का प्रयोग प्रभावित करेगा जैसे, सुगबुगाहट महसूस  हुई, आँसुओं की सूखी लकीरें, घुड़क कर बोली, अम्मी कहर बरपा देंगी, तिक्त स्वर में, नतीजा सिफर होगा, वहां तो तेरी जुबान गीली लकड़ी रहती हैं... ।

जितना मैंने पिछले तीन सालों में अंजू को जाना समझा उसकी पुष्टि इनके द्वारा लिखी लघुकथाएं बयान कर गई। पर पीड़ा देख अपने नयनों को भिगो लेती हैं, अंजू और इसलिए इनकी लिखी लघुकथा पाठक के दिल को छू लेती हैं । अंजू खुद को अक्सर बातों ही बातों में खानाबदोश कहती हैं शायद ईश्वर ने अंजू के मुकद्दर में लेखक बनकर ख्याति प्राप्त करना ही लिखा था शायद इसलिए इनके पति जो जियोलॉजिकल डिपार्टमेंट में डायरेक्टर की पोस्ट पर हैं का तबादला इनको हर राज्य की संस्कृति से जोड़ देता है। तभी तो, हर राज्य की बोली का सोंधिपन, तड़का इनकी लघुकथा का जायका और लज़ीज़ कर गया। पढ़ने वाले को ये देशज, आंचलिक, प्रादेशिक शब्द अपनी ओर आकर्षित न करे ऐसा हो ही नहीं सकता ।

85 लघुकथाओं को पढ़ने और हर विषय को समझने का मेरा ये सफर रोचक रहा । तो सोच क्या रहे हैं अब आप भी जल्दी से अपना paytm खोलें और संग्रह प्राप्त करे ऐसा न हो कि आप कुछ बेहतरीन पढ़ने से वंचित रह जाए।

विधा : लघुकथा संग्रह

नाम : साँझा दर्द

लेखक : अंजू निगम

प्रकाशन : राघव प्रकाशन ( इंदौर )

संस्करण : प्रथम

वितरण सहयोग : अपना प्रकाशन ( भोपाल )

मूल्य : 200/

लघुकथाकार / समीक्षक- रूपल उपाध्याय, बडौदा ( गुजरात ), 7043403803