समझौते किये जा रहे हैं = विनोद निराश

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कभी मन की नगरी में ,

कभी ख़्वाबों में ,

पावस बन कर आती हो ,

मेरे मन की अंजुरी को ,

यादों से भर जाती हो।

चटक रंगों से ,

भरी प्रेम तूलिका लिए ,

बैठ जाता हूँ ,

धवल चांदनी में ,

बेरंग तस्वीर भरने के लिए ,

मगर खाली पड़ी ,

उदास ज़िंदगी की गागर में ,

कितने भी प्रणय रंग भरूँ ,

वो आंसूओ की तरह फ़ैल जाते है,

और गीला कर देते हैं,

मेरी सोच के वर्क को।

मगर फिर से ,

कल्पना के कुछ आभासी रंगों से ,

मन की तूलिका लेकर

रंग भरने की कोशिश कर रहा हूँ,

प्रेम रंग न सही ,

विरह रंग भर रहा हूँ।

उदास ज़िंदगी की सिलवटों को ,

सब्र की तहें बनाकर ,

उर वेदना कम कर रहा हूँ,

ये सोच कर रंगीन हो जायेगी ,

शायद मेरे मन की जमीन।

बेशक रुखसत हो गयी हो खुशियां,

अलविदा हो गया हो सुकूं,

समझौते के शिवा कुछ न रहा।

रफ्ता-रफ्ता वक़्त गुजरता जा रहा है,

हर रोज़ एक दिन कम होता जा रहा है,

बेमानी सी हो गई निराश ज़िंदगी,

जो जिये जा रहे है,

बस समझौते पे समझौते किये जा रहे हैं।

कभी दर्द में खुशियों के,

कभी खुशियों में दर्द के पैबन्द लगा रहे हैं।

= विनोद निराश, देहरादून (03/07/2021) (संगिनी के अवसान के 3 माह)