उम्र का पड़ाव (लघु कथा) = मीनू कँवर 

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Vivratidarpan.com शायद मैं आज तक भी ना जान पाई एक वक्त हुआ करता था! जब सिर्फ मुस्कुराहट चेहरे की संजीदगी दर्शाती थी ! पर जाने मैं कब बड़ी हो गई, खबर ही नहीं जन्म से आज तक मां बाप पर भार रूपी लड़की होने का गुनाह जो कर रखा है!
यह बात और है, कभी असहाय दु:ख नहीं मिला इतना मिला जितना सह सकूं , लेकिन फिर भी हंसकर जीने में कोई बुराई नहीं, यही सोचकर चल पड़ी जीने दुनियादारी में , शुरू से मेरी फितरत रही स्वच्छ चरित्र की और कोशिश भी करती रही बना रहे , लेकिन हीरा भी कोयले से तराश कर परखा जाता है! फिर मैं तो मामूली इंसान खूब तराशे गए, पर सच में एक साधारण इंसान की जिंदगी रोटी में नमक जैसी होती है ! हर क्षण एक ख्वाहिश को मारा और एक नई उम्मीद जगाती चली आ रही !
शायद कहीं तो किनारा मिले और दबे पांव जिंदगी वह दिखा रही जिसकी कल्पना मात्र जिहन में नहीं थी! और कब एक प्रफुल्लित हँसी रचनात्मक खामोशी में तब्दील हो गई पता ही नहीं चला! और पहचान के नाम पर क्रोधी प्रवृत्ति की युवती बनकर जिंदगी की नाजुक सी डोर से बंधी ख्वाहिशों को पूरा करने में निरंतर गतिशील कदम बढ़ाती हुई  मंजिल को पाने की जिद पर चल पड़ी!                    = मीनू कंवर, जयपुर,  राजस्थान