आम आदमी - प्रदीप सहारे

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मेरा दोस्त,

नाम रामभाया ।

सुबह सुबह,

घर आया ।

आते ही दिमाग का,

भेजा फ्राय किया,

दही के साथ खाया।

बोलने लगा,

"सुन मेरे,

ओ भाया...

आम आदमी ।

ज़िन्दा  है या गया मर,

या हो गई उसकी,

नज़र कमजोर ।

आसमान छू रहें,

डीज़ल , गैस ,पैट्रोल के दर।

सब्जी, दाल ला रहा,

आधी-आधी  घर ।

फिर भी क्यों?

क्यों.. क्यों हैं मौन ।"

मैंने थोड़ा,

पास बिठाया ।

कंधे पर हाथ रखा,

फिर समझाया ।

" पता हैं,

आम आदमी है कौन ?

क्यों हैं मौन ।"

वह बोला नहीं ।

मैं, बोला,

तो सुन भाई,

" देखा तुमने !

ससुराल जाता जमाई।

एक बीबी, दो बच्चे ।

दो बच्चे, प्यारे सच्चे।

साथ में दो बैग ।

बाईक पर शुरु,

होती भागम भाग ।

आगे बच्चा,

उसके हाथ बैग ।

पिछे बच्चा,

उसके पिछे बीबी,

पिछे की बैग पर,

रखकर  हाथ ।

बीबी सम्हालती,

बार-बार अपनी बैग।

पिछे का बच्चा,

मुंडी बाहर करने की,

कोशिश करता बार-बार।

चिड़-चिड़ाता,

फिर हो जाता मौन ।

यही तो है,

आम आदमी की कौम।''

रामभाया,

जो समझना था,

सब समझ गया ।

फिर धीरे से,

खिसक गया ।

- प्रदीप सहारे नागपुर,  (महाराष्ट्र)