यज्ञोपवीत-देव, पितृ एवं ऋृषि उऋृण संस्कार - हरिश्चंद्र व्यास
Vivratidarpan.com - यज्ञोपवीत को आज के युवक चाबी एवं अंगूठी बांधने के काम में लेने के अतिरिक्त उसकी कोई उपयोगिता नहीं समझते। आज-कल बाजार में नायलॉन के धागे से निर्मित बाजार से खरीदा हुआ जनेऊ का जोड़ा मनुष्य अपने गले में डालकर अपने आपको ब्राह्मण बने रहने का स्वांग रचने में सफल होता रहता हैं। यह तथ्य हम भूल जाते हैं कि, जिस जनेऊ को हम धारण कर रहे हैं उसमें न तो उपयुक्त कपास का धागा ही है और न विधि-विधान से वेदान्ती आचार्य द्वारा ही वह अभिमंत्रित है। इसके धारण करने से पूर्व एवं पश्चात् जिन-जिन नियमों एवं कर्तव्यों का निर्वाह करना वांछित है इन सबसे आज हम अनभिज्ञ हैं। लाखों जनेऊधारी भी उसकी उपयोगिता के बारे में अनभिज्ञ होने के फलस्वरूप उसे निष्फल समझते हैं और विज्ञान के इस युग में यह मानते हैं कि प्राचीन मशीन के जंग खाये हुए पुरजे के समान ही यह उपयोगहीन है, लेकिन वे भूल जाते हैं कि इस यज्ञोपवीत के माध्यम से प्रात:काल ही भिन्न-भिन्न प्रकार के बल और तेज हमारे शरीर को प्राप्त होते रहे है। जो लोग इसे निष्फल समझते हैं वे अग्नि, सोम, प्राण ऋण से उऋण नहीं हो पायेंगे। साथ ही साथ अपने जीवन के क्रियाकलाप में बगैर ऊर्जा के मानसिक एवं शारीरिक रूप से अस्वस्थ ही बने रहेंगे। प्राकृतिक पर्यावरण को भी प्रदूषित करने में भी वे कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेंगे। यज्ञोपवीत द्वारा प्राप्त होने वाला तेजस्व एवं समृद्धि भूलकर पश्चिम सभ्यता के चहेते यह भी भूल जाते हैं कि इसका आधार पूर्ण रूप से विज्ञान से ओत-प्रोत है। इस संस्कार के उपरांत अनुभूति एवं परिवर्तन स्वत: परिलक्षित होते हैं।
यज्ञोपवीत संस्कार हेतु वांछित आयु आठवें वर्ष मानी गई है। इस संस्कार को बालक के लिए दूसरे जन्म की संज्ञा दी जाती है। जब बालक पिता के सोम और माता की अग्नि के मेल से माता के अन्दर गर्भ केन्द्र स्थापित हो जाता है तो क्रमश: पार्थिक पिण्ड बनने लगता है। ऋषि (प्राण) उसमें संस्कारिता प्रदान करते हैं। वेदों के अनुसार यज्ञोपवीत संस्कार से पूर्व बालक किसी ऋणशोधक कर्म का अधिकारी नहीं होता क्योंकि वह अबोध और आचार्य द्वारा संस्कार विहीन होता है। साथ ही साथ सोम, अग्नि और वायु जिससे उसका निर्माण हुआ, आठ वर्ष की आयु तक मिश्रित अवस्था में होते हैं। हमारी संस्कृति की प्रमुख और सनातन विशेषता रही है कि जिन-जिन से हमने जो कुछ प्राप्त किया है, उसे जीवन पर्यन्त ऋणी के रूप में बोझिल समझते हुए कालान्तर में उन्हें पुन: लौटाकर ऋण से उऋृण होकर ही इस दुनिया से विदाई लें। भारतीय संस्कृति एवं वेदों के अनुसार मनुष्य पर तीन ऋण होते हैं- देव, पितृ एवं ऋषि। यद्यपि इनके उऋण होने के निश्चित सिद्धांत तो नहीं हैं, परन्तु यह निश्चित है कि विभिन्न पद्धतियों के माध्यम से ऋण से उऋण होना हमारा पुनीत कर्तव्य बन जाता है, कि जिन पदार्थों से यह तीन वस्तुएं प्राप्त हुई हैं, उन्हें पुन: संसार में पहुंचाएं। वैदिक ग्रन्थों के अनुसार यज्ञोपवीत की शक्ति से पूर्ण लाभ उठाकर ही संसार के पोषण में सहायक सिद्ध होकर हम अपने ऋणों से उऋण हो सकते हैं।
जब बालक यज्ञोपवीत संस्कार हेतु आचार्य द्वारा निर्मित मंडप पर आरोहण करता है, तब वह आचार्य के सम्मुख प्रतिज्ञा करता है, कि जो तीन ऋण उस पर है उसे वह चुकायेंगा। इस प्रतिज्ञा के उपरांत ही वह मंडप में प्रविष्ट होने का अधिकार प्राप्त करता है। यह मंडप आजकल के राजनैतिक मंडपों की भांति नहीं होते, जहां प्रतिज्ञा करने के उपरांत भी राजनेता अपने किए गए वचन से विमुख हो जाते हैं। यह वह मंडप है, जहां भिन्न-भिन्न प्रकार के शुद्धि कर्म होते हैं। तदुपरांत आचार्य उसे पवित्र कपास से तैयार जनेऊ धारण करवाता है। आचार्य कपास से निर्मित धागे के यज्ञोपवीत को ही धारण क्यों करवाता है? इसके पीछे भी विशिष्ट कारण है। हमारे ऋषि और आचार्यों का विश्वास रहा है कि आठ वर्ष की आयु के उपरांत सोम, अग्नि और वायु लगभग भिन्न-भिन्न स्थान व क्रियाएं करने में सक्षम हो जाते हैं। इसके साथ ही साथ वेदान्तियों का विश्वास है कि जब बालक के शरीर में कोई ऐसी आकर्षण शक्ति का निर्माण हो जाये जो अपने समान प्रवाह को अविलम्ब आकर्षित करते हुए अपने में स्थायी रूप से ठहरा सके। इसी कारण ऋषियों ने निरन्तर शोध की और मालूम करने का प्रयत्न किया कि इस पृथ्वी पर ऐसा कौन-सा उपयुक्त पदार्थ उपलब्ध है जो सोम, अग्नि और प्राण से निर्मित हुआ है और उन्हें अलग कर सकता है। मनुष्य जिन-जिन पदार्थों से निर्मित है, वे पदार्थ ही मनुष्य के लिए उपादेय हो सकते है, क्योंकि एक जाति गुण के पदार्थ अपनी जाति गुण वाली वस्तु को आकर्षित ही नहीं करते, बल्कि अपने अन्दर बनाये रखते हैं। अपने से विपरीत जाति की वस्तु के संसर्ग में आने पर शक्तिवान पदार्थ दूसरे पदार्थ को झटका देकर अलग कर देता है। यह तथ्य आज के वैज्ञानिक भी मानते हैं। फिर भला हमारे ऋषि भी आज के वैज्ञानिकों से कौन-से कम प्रखर थे। उन्होंने भी खोज कर आखिर ऐसा पदार्थ खोज निकाला जो उन सोम, अग्नि और प्राण से बना है, जिनसे मनुष्य बना है। वह पदार्थ है कपास। लाल फूल वाली कपास की उत्पत्ति इस प्रकार है- जिस समय हमारे यहां प्रात:काल के चार बजे से कुछ क्षण पूर्व परमेष्ठी मण्डल में जो सोम समुद्र है उसमें बड़ी हिलोर होती है उस हिलोर के कारण वहां से सोम की धारा प्रवाहित होती है। इस सोम धारा के पडऩे से सूर्य के ऊपर से पृथ्वी पर रश्मियां आती हैं। यह रश्मियां अपने धक्के से रात्रि के वरुण प्राण को धका देती है जिसके फलस्वरूप पृथ्वी पर पहले प्रवाह का भाप फिर सूर्य के ऊपर से आई हुई रश्मियां और पीछे आई हुई सोमधारा क्रम से पड़ती है- इन तीनों वस्तुओं के मिट्टी में मिलने से कुशा की उत्पत्ति होती है। यह मान्यता है कि ब्रह्म-मुहूर्त में सोमधारा पृथ्वी पर आ जाती है। कुशा में सूर्य रश्मियां विशेष रूप से निहित होती है। कुशा सोने के समान शोधक होती है। परमेष्ठी से गिरती हुई सोमधारा का एक अंश सूर्य के ऊपर के छिद्र द्वारा सूर्य की शिखाओं को भीतर दबाता हुआ अन्दर प्रवेश करता है। सूर्य-गर्भ के सोम के गायत्री रस से उसका मार्ग बाधित हो जाता है तथा वायुमण्डल में गंदी गैसों के फैलाव के कारण ऊंचाई की ओर नहीं उठ पाती, परन्तु अन्तोगत्वा सूर्य की गर्मी के धक्के से गायत्री रस पृथ्वी पर आ जाता है। गायत्री की धारा अपने साथ सूर्य की किरणें और सोम वायु को भी साथ लाती है और आकाश में विस्तृत रूप से विस्तारित होने में सफल होती है। इसी कारण प्रात:काल सूर्योदय के समय उसकी लालिमा दिखाई देती है। वेदों में इस गायत्री स्वरूप को पूज्य माना है। गायत्री रस और सोम वायु मिलकर ही कपास की उत्पत्ति करता है। यह तथ्य वैदिक ग्रंथों में चर्चित है। अत: हम विभिन्न प्राचीन ग्रन्थों, वैदिक साहित्य एवं ऋषियों के शोध ग्रंथों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि लाल फूल वासी कपास में सोम, ज्योति एवं वायु तीनों पदार्थ विद्यमान हैं। जब कपास में ज्योति है तो स्वाभाविक रूप से बालक द्वारा उसे धारण करने के पीछे यही उद्देश्य है कि वह सूर्य के ताप को सहन करने का अभ्यासी हो सके, ताकि वह यज्ञ की अग्नि को सहन कर सके। जब यज्ञों की अग्नि सहन करने की शक्ति नहीं होगी तो भला सूर्य की ज्वाला को कैसे सहन कर सकता है? अत: बालक को सोम और सूर्य की ज्वाला को सहन करने की क्षमता ही नहीं बल्कि उसे अपने में ठहराये रखने की शक्ति का निरन्तर अभ्यास करवाते रहने तथा शुद्ध अग्नि और सोम से संपर्क रखे रहने से ही अग्नि (देव), सोम (पितृ), प्राण (ऋषि) उन तीनों ऋणों से उऋण हो सकता है। यज्ञोपवीत को कपास द्वारा निर्मित करने के पीछे यही प्रमुख कारण है। इसीलिए मंडप में आचार्य मंत्र पढ़कर कपास से बने जनेऊ को धारण करवाते हैं।
यज्ञोपवीत को बायें कंधे से दाहिने घुटने तक धारण करवाते हैं, क्योंकि शरीर में शुद्ध और अशुद्ध वायु क्रमश: दाहिनी और बाईं ओर स्थित होना माना गया है। आज भी वैज्ञानिक इस तथ्य से पूर्णत: सहमत हैं कि हृदय बायीं ओर स्थित है जहां वह गन्दी वायु को हृदय द्वारा शुद्ध कर शरीर में प्रवाहित करता रहता है और शरीर तब तक प्राणमय बना रहता है जब तक हृदय की गति इस प्रक्रिया को निरन्तर चालू रखती है। आचार्य द्वारा अभिमंत्रित जनेऊ एकमात्र ऐसा साधन है, जो दूषित तत्व को समीप ही नहीं फटकने देता। गायत्री की शक्ति ठीक उसी तडित चालक के समान है, जिस पर बिजली गिरने पर तडित चालक के माध्यम से वह पृथ्वी में समा जाती है, ठीक इसी प्रकार गायत्री मंत्रित जनेऊ के पास दूषित तत्व, गायत्री के विद्युत से कट कर समाप्त हो जाता है।
आधुनिक युग में जहां पश्चिम की सभ्यता का प्रभाव फैलता जा रहा है और पश्चिमी देश अपने द्वारा प्रतिपादित तथ्यों का ही मंडन करते हैं, जबकि प्राचीन भारतीय साहित्य, वैदिक साहित्य है एवं वेद-पुराणों में यज्ञोपवीत संस्कार को मनुष्य के एक जीवनकाल में ही दूसरे जन्म की संज्ञा दी है।
जब प्रात: प्रभातकाल में सूर्य के भीतर से गायत्री रस (अग्नि) बाहर आता है और दो अरब योजन से सोम वायु आती है तो सौर और सोम शक्तियों को आकाश मंडल से कपास का अभिमंत्रित जनेऊ लोहे के चुम्बक के समान आकर्षित करता है और हमारे शरीर के अन्दर उन शक्तियों को भरता है। कपास से निर्मित जनेऊ में सौर और सोम स्वजाति गुण होने के फलस्वरूप इन शक्तियों का प्रवाह सीधे
हमारे शरीर पर न पड़कर जनेऊ पर पड़ता है क्योंकि उसमें स्वाजातीय गुण है। इससे हमारा बचाव हो जाना स्वाभाविक है। फिर वहां से वह हमारे शरीर में धीरे-धीरे प्रवेश करता है। ब्रह्मï मुहूर्त में साधना के वक्त इस तथ्य को प्रत्यक्ष भी देखा जा सकता है। जो लोग ब्रह्म मुहूर्त में उठकर नित्यकर्म करते हैं उनमें उन लोगों की अपेक्षा अधिक ऊर्जा रहती है, जो प्रतिदिन देर तक निद्रामग्न रहतेे हैं। अत: ब्रह्म मुहूर्त में ऊर्जा प्राप्त करने वालों में मुक्ति पाने का हक बन जाता है।
अधिक ऊर्जा का होना स्वयंसिद्ध उदाहरण परिलक्षित होता है। कपास द्वारा निर्मित जनेऊ के तंतु के इसी गुण के कारण ऋषि तंतु यान बनाकर अरबों मील ऊपर जाते थे, बाजार से खरीद की गई नायलॉन, रेशम या अन्य पदार्थों से निर्मित जनेऊ जिसका उपयोग केवल ताली एवं अंगूठी बांधने तक समझा जाता है, निष्फल है। अग्नि (देव), सोम (पितृ) एवं प्राण (ऋषि) ऋण से मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य के लिए तथा उऋण होने के साधन के रूप में सूती जनेऊ अपनाने का प्रयत्न किया जाना चाहिए। (विनायक फीचर्स)