देश में बढ़ती महंगाई का जिम्मेदार कौन? - अंजनी सक्सेना
Vivratidarpan.com - हमारे देश में रोजमर्रा के काम आने वाली चीजों के दाम अंतर्राष्ट्रीय बाजार की कीमतों के स्तर पर पहुंच चुके हैं। आम जरूरत की चीजों के दाम कम करने की कोई कोशिश भी दिखाई नहीं दे रही है। आज महंगाई की समस्या विकराल रुप धारण कर चुकी है। इसके भयंकर दूरगामी परिणाम होने की संभावनाएं भी जताई जा रही हैं ऐसे में आज मंहगाई को एक राष्ट्रीय समस्या के रूप में देखा जाना चाहिए । सरकारें महंगाई की समस्या को अपनी प्राथमिकता सूची में सबसे ऊपर रखने की घोषणाएं तो करती हैं, किन्तु उन घोषणाओं के प्रति कोई भी सरकार गंभीर नहीं होती।
जब दाम बढ़ते हैं तो केवल अर्थव्यवस्था ही चौपट नहीं होती, सामाजिक नैतिक मूल्यों में भी ह्रास होता है। वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकास की बढ़त अवरूद्ध होती है। देश की साख गिरती है। लोगों में योजना एवं सरकार के प्रति अविश्वास बढ़ता है। सामान्य सुविधाएं भी देश को नहीं मिल पाती, फिर कर्जों का बोझ और उसी अनुपात में अंतर्राष्ट्रीय दबाव भी बढ़ता है। आज तक मूल्य वृद्धि पर नियंत्रण के तमाम प्रयास कमोवेश असफल साबित हुए हैं।
अतीत की बात करें तो कांग्रेस सरकार ने देश को आर्थिक संकट से उबारने का जो सरल रास्ता अपनाया था, वह देश के सामान्य जीवन के लिए कठिन चुनौती बन गया था। तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक की सलाह पर बनाई गई नीतियों से कुछ साधन एवं सत्ता संपन्न लोगों को छोड़कर जनता की आमदनी में कोई वृद्धि नहीं हुई।
आज यह समस्या देश की स्थायी समस्या बन गयी। पानी, बिजली, मकान पर लगने वाले कर, कपड़ा एवं यातायात 25 प्रतिशत से 1000 प्रतिशत तक महंगे हो गए हैं । इसी बीच डीजल, पेट्रोल, रसोई-गैस, कोयला व इस्पात सबके भाव बढ़े तो व्यापारियों ने भी मनमानी वृद्धि कर दी। कीमतों की यह बढ़ोत्तरी किसी एक क्षेत्र में नहीं हुई है, बल्कि यह बढ़ोत्तरी करीब-करीब सभी क्षेत्रों में हुई है। सबसे अधिक बढ़ोत्तरी तो आम लोगों की जरूरत वाली चीजों के प्राथमिक क्षेत्र में हुई है। अगर थोक मूल्यों का सूचकांक ही लें, तो सबसे अधिक बढ़ोत्तरी फलों, सब्जियों और अनाजों के दामों में हुई । इनकी कीमतों में भी कई गुना बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। अरहर और उड़द जैसी अधिक खाई जाने वाली दालों के दाम तो हर साल आसमान छूने लगते हैं। जबकि चावल के दामों की भी लगभग यही स्थिति है। कुल मिलाकर भोजन की वस्तुओं के दामों में बेतहाशा वृद्धि दर्ज की गई है।
खाने की वस्तुओं के दामों में उतार-चढ़ाव होते रहना कोई आश्चर्य की बात नहीं है, मगर अच्छी वर्षा होने के कारण खाने की वस्तुओं के मूल्य में गिरावट आनी चाहिए पर इस देश में ऐसा कभी नहीं हुआ। इस स्थिति को गंभीर बनाने वाली बात यही है कि बाकी सभी क्षेत्रों में भी दाम आज भी बढ़ रहे हैं, जो इस बात का सबूत है कि बाजार दबाव में है। महंगाई अर्थव्यवस्था में पैदा होने वाले नये-नये संकटों की एक सरलीकृत अभिव्यक्ति है, इसलिए महंगाई बढ़ाने की जिम्मेदार शक्ति केन्द्र सरकार है, जो समूची अर्थव्यवस्था का नियंत्रक है। हमारी अर्थव्यवस्था पर किसका नियंत्रण है? आयात-निर्यात नीति कौन तय करता है? उत्पाद कर निर्धारण कहां से होता है? अप्रत्यक्ष करों का जाल कौन बिछाता है? नमक से लेकर आयतित विमान के मूल्य निर्धारण का अधिकार किसके हाथ में है? इन सारे प्रश्नों का एक ही उत्तर है- केन्द्र सरकार। हमारे देश में जो व्यवस्था लागू हैं, उसमें वस्तुओं की चाहे वे देश में उत्पादित हों या विदेश से आयातित कीमत निर्धारित करने और कीमत घटाने बढ़ाने का विशेषाधिकार केंद्र सरकार को ही प्राप्त है, अत: महंगाई बढ़ाने का अपराध भी यही करती है। पूंजीपति, मुनाफाखोर, जमाखोर व बिचौलिया व्यापारी अधिक से अधिक सह-अपराधी की भूमिका निभा सकते हैं।
यह भी एक विडम्बना ही है कि जो मूल्य वृद्धि का असली खलनायक है, उसे ही जनता भ्रमवश जब तब त्राता के रूप में देखती है। महंगाई की सुरसा अपना बदन बढ़ाती चली जाती है। सरकार भी जनता को खुशफहमी में डालने के लिए ममतामयी छवि का रूप धारण करती है। महंगाई के विरुद्ध युद्ध का स्वांग भरा जाता है, लेकिन इस युद्ध में सरकार अपनी चतुराई से महंगाई रूपी सुरसा से पार पाने में नहीं, अपितु जनता को मूढ़ साबित करने में सफल हो जाती है। महंगाई की सुरसा ज्यों की त्यों बनी रहती है। जनता इसके बाद दूसरी सरकार को आजमाती है। अब तो स्थिति यह है कि महंगाई चाहे कितनी बढ़ जाये, वह कोई सनसनीखेज मुद्दा नहीं बन पाती।
महंगाई की चर्चा शुरू होते ही अर्थ जगत के कुछ मिथकीय चरित्र अपने विशालकाय दानवी रूप में हमारी कल्पना में उभरने लगते हैं। हम अपनी कल्पना की रौ में ही मुनाफाखोर, जमाखोर, पूंजीपति और व्यवस्था को कोसने लगते हैं। ऐसा करते हुए हमें आभास होता है कि हम सामाजिक चेतना से परिपूर्ण हैं। यह ऐसी खुशफहमी हैं, जो हमें महंगाई के कटु यथार्थ को मीठे दर्द की तरह झेल जाने का माद्दा दे जाती है। प्रचलित मिथकों में से एक यह भी है कि महंगाई इजारेदार पूंजीपति व बड़े व्यापारी बढ़ाते हैं। चुनाव में सरमायेदार व व्यापारी राजनीतिक दलों को भारी चन्दा देते हैं और बदले में जिंसों की मनमानी कीमत बढ़ा लेते हैं। एक भ्रम यह भी है कि देश में स्थापित समानांतर अर्थव्यवस्था के कारण महंगाई बढ़ती है। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सत्ता में रहने के दौरान इस भ्रम को खूब पुख्ता किया था। चन्द्रशेखर ने अपने संक्षिप्त प्रधानमंत्रित्व काल में एक अस्थायी मिथक गढऩे की कोशिश की और महंगाई को खाड़ी युद्ध की देन बताना शुरू किया था। इन सबसे भिन्न कुछ ऐसे लोग हैं, जो बड़े सात्विक भाव से कहते हैं कि महंगाई बढना एक सामान्य विश्वव्यापी समस्या है और हमारे देश को इस पर अलग से चिन्तित होने की जरूरत नहीं है। सीमाहीन झूठ का इससे अच्छा कोई उदाहरण हो ही नहीं सकता, जिसे हमारी अब तक की सरकारें किसी न किसी रूप में प्रकट करती रहीं है।
कीमतों की वृद्धि भारतीय अर्थव्यवस्था की एक स्थायी समस्या बन चुकी है। यदि महंगाई के अनुपात में ही लोगों की वास्तविक आय बढ़ती रहे तो चिंता की बात नहीं होती, लेकिन ऐसा होता नहीं है। महंगाई का कहर सब पर समान रूप से टूटता है, किन्तु कुछ लोगों की आय तेजी से बढ़ती है और ज्यादातर लोगों की आय स्थिर रहती है या उसमें बहुत मामूली इजाफा होता है। ऐसी स्थिति में इसी पर आश्चर्य होता है कि महंगाई का सवाल हमारी राजनीति के केन्द्र में क्यों नहीं आ पाया है। क्रय शक्ति बढ़ाने के लिये जरूरी है- आय में वृद्धि होना। जो रोजगार, कारोबार में है, वे अपनी आय ज्यादा बढ़ा लेते हैं। वेतनभोगी वर्ग ,सांसद, विधायक सभी दबाव डालकर अपने वेतन बढ़वा लेते हैं। किंतु देश में 75 प्रतिशत वेतनभोगी प्राइवेट कर्मचारी व खेतों में काम करने वाले मजदूर भी हैं। अगर आय ज्यादा न बढ़े, लेकिन उत्पादन आबादी के हिसाब से बढ़े तो भी महंगाई नियंत्रित रहती है, किन्तु जब देश की आय का अधिकांश हिस्सा कर्ज अदायगी में जायेगा, आय से अधिक खर्च की सरकारी नीति रहेगी, मुफ्त का धन और राशन बांटने की वोट उगाऊ राजनीति रहेगी,उद्योगों में पश्चिमी देशों का अन्धानुकरण होगा, तो हर हाथ को काम व रोजी-रोटी मिलना भी मुश्किल है।
आमतौर से केन्द्र सरकार की आर्थिक ताकत का अंदाजा लोगों को कम ही है। आयात-निर्यात पर जो किसी देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ होता है, पूरी तरह केन्द्र सरकार का नियंत्रण है। सारे औद्योगिक उत्पादनों के लागत मूल्यों पर न्यूनतम 100 प्रतिशत से लेकर 300 प्रतिशत तक मुनाफे के साथ उनका मूल्य निर्धारित किया जाता है और इन उत्पादनों पर होने वाले कुल लाभ का विभिन्न टैक्सों के माध्यम से 80 प्रतिशत अंश सरकार हड़प लेती है। जनता पर प्रत्यक्ष व परोक्ष कर ज्यादातर केन्द्र सरकार ही लगाती है। इसके बावजूद वह लाचार व निरीह बनकर महंगाई बढने की जिम्मेदारी यहां वहां डालने का प्रयास करें तो कोई क्या कर सकता है? भ्रम की स्थिति उस समय तक बनी रहेगी, जब तक महंगाई की समस्या को राष्ट्रीय मुद्दे के रूप में नहीं देखा जायेगा। (विभूति फीचर्स)