मेरा यह देश गांवों का - डा अंजु लता

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मेरा यह देश गांवों का                       

अब तो कस्बेनुमा आधे नगर

का ही गुमां होगा

विकल मन कह रहा कब से

मैं पूछूं आज यह सबसे

पढ़ा पोथी में तो होगा

वो प्यारे गांव कैसे खो गए?

वतन थाती का क्या होगा?

मेरा यह देश.....

सभी हिल मिलके रहते थे

सभी का काम था चोखा

खुशी में नाचते गाते

गँवाते कोई न मौका

मगर अब बैर पनपे है

घरों में लूटते अपने

अगर चलता रहा यह दौर

इंसानों का क्या होगा?

मेरा यह देश........

अब तो शहरी पलायन है

हुआ झीना सा दामन है

हटा परदा हया का आज

संस्कारों का क्या होगा?

मेरा यह देश......

ना दिखती अब वहां चक्की

ना चूल्हा और वह चौका

चौपायों के दर्शन भी

लगे आंखों का ही धोखा

सुखद वो खेत पर जाना

फलों को तोड़कर  खाना

हुईं सब बात बेमानी

अब अश्कों से बयां होगा

मेरा यह देश......

वो गगरी का छलकता नीर

पनघट पर बजे पायल

रहट का चुर्र-चूं चलना

मां की ममता के सब कायल

स्वप्न सी हो गई अब तो

पुलावी ख़्वाब ही पकते

सिनेमा में बयां होगा

निगहबानी करेगा कौन

इस सुंदर सफर की हा!

जुड़ी  हैं पुरअसर इनसे

मधुर यादों का क्या होगा?

मेरा यह देश ......

जिसने आकर नहीं झांका

कभी इस ओर न ताका

कभी मिल पाए जो मौका

इधर जब रूख करेगी तो

नई पीढ़ी  का क्या होगा?

मेरा है देश....

दो नावों में लटकते पैर

शहर के लोभ ले डूबे

खुदी से खुद परेशां हैं

धरे रह गए  मंसूबे

डूबेंगे या उबरेंगे?

जहन में कुलबुलाहट है

किनारे तक जो ना पहुंचे

तो अरमानों का क्या होगा?

मेरा है देश.....

मगर शहरी पलायन ने

इसे ढुलमुल सा कर डाला

जिधर जाऊं वहीं देखूं

ना चूल्हा और ना आला

अब न बैलों की जोड़ी है

ना दीखे अलीगढ़ी ताला

सभी शहरी झलक देते

विवश गांवों का क्या होगा?

मेरा है देश....

- डा अंजु लता सिंह , नई दिल्ली