कराहती खिड़की - ज्योति श्रीवास्तव

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शहर के आपाधापी जीवन से दूर

चल पड़े गांव अपनों से मिलने ...

पर वक्त के साथ सब बदलता गया

आज विरान सी गली देखकर दिल रो पड़ा

जहां कभी खेला करता था बचपन

बड़ा सा आंगन फूल पौधे,,...

आंगन में चिड़ियों की चहचहाट..

जहां कभी खिलती थी कलियां

दीवारों के साहारे चढ़ी हुई हरी भरी बेले जो

खिड़की के रास्ते झांकती हुई,

जैसे कह रही है कि लो तुम्हारे पास आ गई

हरियाली सा मंजर ...

अपनों के बीच बैठ के लगाते ठहाके.....

आज विरान सा देखकर

आंखों में आंसू भर देखकर सोचते रह गए...

कहा गया वो हरा भरा पल ...

जहां अब केवल रोती हुई दीवारें

सूना आंगन कराहते हुए खिड़कियां

जैसे कह रही हो ...

बहुत देर कर दी

आने में.....

बस यह सोच के आंसू छलक आए

जहां से कई बरसों पहले

कुछ बनने के खातिर कुछ अपना जीवन

यापन करने की खातिर ......

छोड़ आये बचपन का घरौंदा...

अब इन बिरान दीवारों पे पपड़ी उभर आई है

शोर शराबा न जाने कहां खो गया ..

आज भी कराहती खिड़की इंतजार कर रही

काश...

कोई बेल फिर से झांके

मेरे चौखट से...

- ज्योति श्रीवास्तव, नोएडा , उत्तर प्रदेश