कुंभ मेला - प्रदीप सहारे

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भक्ति और आस्था का,

अद्भुत प्रयाग संगम।

जहाँ जीवनदायी तीन,

नदियों का होता मिलन।

"कुंभ मेला" शब्द,

सुना था कभी बचपन में,

पहुँचे उसमें उम्र पचपन में।

आस्था का महासंग्राम देख,

हृदय और मन भर आया।

सोच-सोचकर सोचा,

पिछले जन्म का पुण्य काम आया।

सब परिवार था साथ,

सबके हाथों में थे हाथ।

सुबह का था प्रथम प्रहर,

मुख से निकला—

"नमामि गंगे! हर हर!"

ना जाने कैसी आई,

मानव-श्रृंखला- की  लहर।

गिरने लगे, एक-दूजे पर,

काल लगाकर बैठा घात,

छूटने लगे एक-दूसरे के हाथ।

"हर हर गंगे" की गूँज,

दब गई चित्कार में।

खुशियाँ बदल गईं,

जीवन की हार में।

खिलखिलाते, हँसते चेहरे,

अचानक भय से भर गए।

चारों ओर भागमभाग,

शोर हुआ फिर आकांत।

वह आकांत,

क्रंदन में तब्दील ।

मजबूर हुए दील ।

व्यवस्था चिढ़ाती मुंह,

उनकी मजबूरी पर।

बिछड़ गए अपने प्यारे।

अपनों से हमेशा-हमेशा के लिए,

एक-दूसरे से दूर...

सब जीवन क्षणभंगुर है।

प्रदीप सहारे, नागपुर, महाराष्ट्र

मोबाईल, नंबर – 7016700769