कविता - रेखा मित्तल

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सांझ ढलते ही शहर की खामोशी

सूने फ्लैट में अपने ही रचे एकांत

दिनभर की व्यस्तता का दबाव

घर न जा पाने की छटपटाहट

माँ का झुर्रियों भरा उदास चेहरा

और यह सब सुनने के लिए

जब कोई भी नहीं होता है पास

तो कैसे कोई न हो उदास?

खुद से मिले ही समय हो गया

आत्म-बोध की फुरसत ही नहीं

हर पल जीवन की कशमकश

दो कौर भी सुकून के नहीं

सब दौड़ रहे एक अंधी दौड़ में

कहीं पीछे न छूट जाऊँ

अपने दुखों से विवश नहीं

पर दूसरों के सुख से दुखी

अपनी मिट्टी से अलगाव

जड़ों से दूर,अपनों की आस

तो कैसे कोई न हो उदास?

बरसों बीत गए देखे नीले आकाश

हिमशिखर,और पर्वतों की चोटियां

वह तारों की पंक्तियाँ ,मेघ आकृतियाँ

चिड़िया का फुदकना, बैलों की घंटियाँ

लीपते आँगन की सोंधी खूशबू

घर की चहकती ,बोलती दीवारें

अब तो सन्नाटा इतना अधिक

कि घड़ी की टिक-टिक भी देती सुनाई

अपनों के स्नेहिल स्पर्श को तरसते अहसास

न चाहते हुए भी मन होता है उदास

- रेखा मित्तल , चण्डीगढ़