कविता - झरना माथुर

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सूर्य की तपिश जैसे बढ़ने लगी,

जेठ की गर्मी वैसे पसरने लगी।

फिजाओं ने भी अब रुख बदल लिया,

हवाएं भी लू का रूप धरने लगी।

नदी झरने सहम के सिमट ने लगे,

हर तरफ रेत ही रेत दिखने लगी।

कैद हो गए सभी अपने घरों में,

सड़के सन्नाटे में बिखरने लगी।

यूं माहौल बना अब छुट्टियों का,

तब सरेशाम महफिले सजने लगी।

झरना माथुर, देहरादून , उत्तराखंड