कविता (सरस्वती वन्दना) - चित्र भूषण श्रीवास्तव 

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शुभवस्त्रे हंस वाहिनी वीणा वादिनी शारदे ,

डूबते संसार को अवलंब दे आधार दे !

हो रही घर घर निरंतर आज धन की साधना ,

स्वार्थ के चंदन अगरु से अर्चना आराधना

आत्म वंचित मन सशंकित विश्व बहुत उदास है,

चेतना जग की जगा मां वीणा की झंकार दे !

सुविकसित विज्ञान ने तो की सुखों की सर्जना

बंद हो पाई न अब भी पर बमों की गर्जना

रक्त रंजित धरा पर फैला धुआं और औ" ध्वंस है

बचा मृग मारीचिका से , मनुज को माँ प्यार दे

ज्ञान तो बिखरा बहुत पर , समझ ओछी हो गई

बुद्धि के जंजाल में दब प्रीति मन की खो गई

उठा है तूफान भारी , तर्क पारावार में

भाव की माँ हंसग्रीवी , नाव को पतवार दे

चाहता हर आदमी अब पहुंचना उस गाँव में

जी सके जीवन जहाँ , ठंडी हवा की छांव में

थक गया चल विश्व , झुलसाती तपन की धूप में

हृदय को माँ ! पूर्णिमा सा मधु भरा संसार दे।

- प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव "विदग्ध (विनायक फीचर्स)