ग़ज़ल हिंदी - जसवीर सिंह हलधर

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सभ्यता लौटी नहीं अब तक फिरंगी झील से ।

हंस भी डरने लगे अब मज़हबी इस चील से ।

कल गरीबी पर बहुत चर्चा हुई दरबार में  ,

भुखमरी रोती रही यह देख कर सौ मील से ।

मानसूनी सत्र को हम देखने संसद गए ,

ख़ास मुद्दों पर सदन मजबूर था तामील से ।

दूध की नदियां बहाने की कसम खाते रहे ,

जंगलों से मुर्गियां भी छीन लाये भील से ।

देख लो बंगाल के हालात कैसे हो गए ,

जुर्म भाषण दे रहा कानून का तहसील से ।

संगठित होने लगे कुछ दल चुनावों के लिए ,

रोशनी गायब दिखी इस कागज़ी कंदील से ।

यज्ञ की बेदी नहीं बारूद का घर मानिए ,

लग न जाये आग ये थोड़ी हमारी ढील से ।

मूल में आतंक के इस्लाम ही क्यों लिप्त है ,

आयतें पढ़ लो जरा कुर-आन की तफ़सील से ।

रोज "हलधर" बोलता है तथ्य को भी तोल लो,

नागरिक कानून की तख्ती  ठुके सम कील से ।

 - जसवीर सिंह हलधर, देहरादून