ग़ज़ल - विनोद निराश

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तन्हा जिंदगी इक खण्डर है,

गम-ए-जुदाई इक मुकद्दर है।

आरज़ू-ए-जानेजां कुछ नहीं,

फकत फरेब का समंदर है।

ज़ुस्तज़ू थी चांदनी की मगर,

हाले-नसीब स्याह मुकद्दर है।

हसरते-महल जलजले सरीखी, 

ख्वाबे-ताबीर जिसकी पत्थर है।

यूं तो है हर सू आलमे-मसर्रत, 

मगर ख़ुशी कहाँ मयस्सर है।

पढता रहा रोज़ चेहरा जिसका, 

वही शख्स निराश मेरे अंदर है।

- विनोद निराश, देहरादून