ग़ज़ल - विनोद निराश 

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इश्क़ को मेरे आवारगी समझा न किजिये,

गुम हूँ तुझमे ही बेरुखी समझा न किजिये।

हर जुल्म तेरा मुस्कुरा के सह लेते है मगर,

तबस्सुम को बुज़दिली समझा न कीजिये।

दौर-ए-गर्दिश ने बख्शे है अँधेरे तो क्या हुआ,

मुक़ददर को मेरे तीरगी समझा न कीजिये।

चश्मे-अश्कबार हुई फुरकत में तुम्हारी पर,

दरिया-ए-अश्क़ को नदी समझा न कीजिये।

न पहनने का शौक रहा न संवरने का शऊर,

आदत को मेरी मुफ़लिसी समझा न कीजिये।

गर दोस्तों में बैठ के मुस्कुरा लेते है तो क्या?

मेरी इस मजबूरी को ख़ुशी समझा न कीजिये।

हालते-नसीब का मारा हुआ है ये निराश दिल,

हरगिज़ इसे फरेबे-आशिकी समझा न कीजिये।

- विनोद निराश, देहरादून