ग़ज़ल - विनोद निराश

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देखूं उसे अंजाना सा लगे है ,

सोचूँ उसे बेगाना सा लगे है। 

ये अधखुली सी उनींदी आंखें,

राह-ए- मयखाना सा लगे है। 

वो सुर्ख लब मानिंद-ए-कँवल ,

लबरेज़ कोई पैमाना सा लगे है। 

आवारा बिखरी जुल्फे कांधों पे,

चाँद रुख-ए-जानां सा लगे है।

रुखसार मानिंद-ए-मखमल,

छुअन वो पहचाना सा लगे है। 

हल्का तबस्सुम लब-ए-बाम ,

इश्क़ का फ़साना सा लगे है।

सुर्ख लिबास बदन पर उनके,

सामाने-क़ज़ा जाना सा लगे है।

शगुफ्ता चेहरा शफ्फाक बदन,

ईद का नज़राना सा लगे है।

सर से पाँव मंज़र-ए-क़यामत,

निराश अफसाना सा लगे है।

- विनोद निराश, देहरादून