ग़ज़ल - विनोद निराश

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चेहरा खुली किताब सा लगे है ,

जाने क्यूँ वो ख्वाब सा लगे है।

बिछुड़ा ऐसा लौटा न अब तक,

बेवफा चश्मे-आब सा लगे है।

मैं छुपाता रहा अश्कों को पर,

मेरे भीतर अजाब सा लगे है।

महकंने लगे जब रूह में मेरी,

वो खिलता गुलाब सा लगे है।

देखा जो उन आँखों को हक़ से,

आँखे जामे-शराब सा लगे है।

तेरे लबों की ख़ामोशी निराश,

सवाल का जवाब सा लगे है।

- विनोद निराश , देहरादून

चश्मे-आब - आँख का पानी / आँसू 

अश्क - आँसू 

अजाब - पीड़ा / दर्द

जामे-शराब - शराब से भरा प्याला /  मय का प्याला