ग़ज़ल हिंदी - जसवीर सिंह हलधर 

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उसने कभी देखा नहीं रोता हुआ आकार मुझे ।

मैं देवता माना उसे वो मानता चाकर मुझे ।

पागल बनाया है मुझे कविता सरीखे रोग ने ,

ये रोग होगा शांत मेरा एक दिन खाकर मुझे ।

जिस रात से बचता रहा वो रात आख़िर आ गई ,

ये जिंदगी डरने लगी तूफान में लाकर मुझे ।

अपनी ज़मीं को पूजकर रिश्ता बनाया चांद से ,

कुछ लोग घबराने लगे हैं चांद पर पाकर मुझे ।

बिकती नहीं कविता यहां बिकने लगे हैं चुटकुले,

कुछ भी नहीं हासिल हुआ है छंद में गाकर मुझे ।

ऐसा करूं क्या काम जो ये भूख मंचों की मिटे ,

उपहास छंदों का दिखा है मंच पर जाकर मुझे ।

कुछ शब्द मैं पीता रहा कुछ अर्थ मुझको खा गए ,

हालात अब पीने लगे हैं रोज पिघला कर मुझे ।

"हलधर" ग़ज़ल कहने लगा है तल्ख़ है उसकी ज़बा ,

साहित्य के कुछ नामधारी मौन धमकाकर मुझे ।

- जसवीर सिंह हलधर , देहरादून