ग़ज़ल (हिंदी) - जसवीर सिंह हलधर

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धूप कारागार में नकली उजाले रह गए ।

हाशिए पर आम जनता के हवाले रह गए ।

बात थी अधिकार के उपयोग की मतदान में ,

पर यहां तो मुफ़्त का राशन निवाले रह गए ।

कोशिशें तो लाख की पर छिप न पाए दाग वो ,

राजधानी में भी कुछ तो दाग काले रह गए ।

लक्ष्य दिल ने तय किया क़ीमत चुकाई जिस्म ने ,

मील का पत्थर बने पैरों में छाले रह गए ।

पूत है परदेश में बेटी गई ससुराल में ,

मुंतजिर मां बाप की आँखों में जाले रह गए ।

शब्द की दौलत मिली है ख़ूब मुझको अब्द से ,

छंद के आयाम गीतों में निराले रह गए ।

साथियों ने ख़ूब धन अर्जित किया परदेश में ,

हम विरासत बाप दादा की सँभाले रह गए ।

मैंने हर हालात के उत्तर दिए हैं आज तक ,

प्रश्न 'हलधर' भाग्य का सिक्का उछाले रह गए ।

- जसवीर सिंह हलधर , देहरादून