ग़ज़ल (हिंदी) - जसवीर सिंह हलधर

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आदमी ने कर लिया है झूँठ को स्वीकार अब तो ।

आचरण में कौम के है युक्त भ्रष्टाचार अब तो ।

यातना है या घुटन है क्या बताऊँ आपको मैं ,

नीति का मंदिर नहीं संसद बना दरबार अब तो ।

युद्ध पोतों के चलन से सिंधु में हलचल बहुत है ,

मछलियों का सिंधु में जीना हुआ दुश्वार अब तो ।

क्या भरौसा कौन अपना चोट दे जाए किसी दिन ,

नाव को खाने लगी है कलमुंही पतवार अब तो ।

साधना के नाम पर साधन जुटाये जा रहे हैं ,

लोक सेवा देश में होने लगी व्यापार अब तो ।

मुक्त कविता चुटकुलों में गुप्त समझौता हुआ है ,

छंद का साहित्य में बौना हुआ किरदार अब तो ।

अब किसानों की समस्या भी बुरी लगने लगी हैं,

खो चुकी संवेदनाएँ  देश की सरकार अब तो ।

कौन मरता कौन जीता क्या फिकर उनको हमारी,

बात मन की झूँठ का लगने लगी भंडार अब तो ।

हाल गर ये ही रहा तो फिर बगावत हो न जाये ,

फावड़ा "हलधर" पिघल होने लगा तलवार अब तो ।

  - जसवीर सिंह हलधर , देहरादून