ग़ज़ल (हिंदी) -- जसवीर सिंह हलधर

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मानवी संवेदनाएं खा रहे हैं न्यूज चैनल ।

बेतुके विज्ञापनों को गा रहे हैं न्यूज चैनल ।

देख कारोबार इनका रो रहें अख़बार सारे ,

शब्द के आलोक को भरमा रहे हैं न्यूज चैनल ।

भुखमरी गायब गरीबी का सफाया हो गया है ,

आंकड़े सरकार के दर्शा रहे हैं न्यूज चैनल ।

अधमरे ईमान पर हिंदू मुसलमां लड़ रहे हैं ,

आग में घी डालकर भड़का रहे हैं न्यूज चैनल ।

सत्य को कैसे छुपाएं झूठ को कैसे बचाएं ,

माल मोटा इस कर्म से पा रहे हैं न्यूज चैनल ।

आप की लगती अदालत में तमाशा रोज होता ,

कठघरे में सुर्खियां दिखला रहे हैं न्यूज चैनल ।

रोज रुपया गिर रहा है देश के हालात देखो ,

आर्थिकी खुशहाल कहकर छा रहे हैं न्यूज चैनल ।

भूख से संतप्त होकर मर गई जब एक बुढ़िया ,

मौत ज्यादा भोज से बतला रहे हैं न्यूज चैनल ।

लोकशाही का जिसे माना गया है खंभ चौथा ,

मूल पथ से दूर 'हलधर' जा  रहे हैं न्यूज चैनल ।

--जसवीर सिंह हलधर , देहरादून