दुनिया जाने भाग्य विधाता - अनिरुद्ध कुमार

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चित जानें क्यों उलझे रहता,

पाप पुन्य की बातें करता।

अपनी करनी आप निहारें,

तनमन में यह कैसी जड़ता।

बोल न पाये सदा तड़पता,

चंचलता में क्यों व्याकुलता।

पाप पुन्य से यह अंजाना,

झेल रहा हर दम नीरसता।

जीवन को जाने है सरिता,

कोमल भावना में विवसता,

पाप पुन्य उलझाये मन को,

चल के कर ले जो जी करता।

परोपकार पुन्य कहलाता,

सेवा हीं दुनिया को भाता।

कष्ट क्लेश हरना हीं जीवन,

जीव पुन्य का भागी बनता।

पुन्य पथी जग को हर्षाता,

हर सुख जीवन में वो पाता।

धर्मध्वजा सेवा को मानें,

दुनिया जाने भाग्यविधाता।

- अनिरुद्ध कुमार सिंह

धनबाद, झारखंड