दैनिक चिंतन - अनिरुद्ध कुमार

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काया माया उलझा यह मन।

मुश्किल लगता जीवन यापन।।

जिस शरीर को समझें चंदन।

ना जाने क्यों करता क्रंदन।।

नश्वर तन पर वारें सब धन।

व्याकुलता में रहता जीवन।।

ठठरी गठरी आज यह बदन।

टूट न जाये  प्यारा बंधन।।

अब क्या ढोना बोल रहा मन।

अंग जला माटी कर अर्पण।।

देह देख रोता  अन्तर्मन ।

सोये जागे दैनिक चिंतन।।

- अनिरुद्ध कुमार सिंह

धनबाद, झारखंड