कविता मैं भारत हूँ (भाग -२) - जसवीर सिंह हलधर
कवि के माध्यम से आया हूँ ।
अध्याय दूसरा लाया हूँ ।।
जनगणमन की सेवारत हूँ ।
मैं भारत हूँ मैं भारत हूँ ।।
शास्त्री जी स्वर्ग सिधार गए ।
सब जीती बाजी हार गए ।।
घटना पर मुझको संसय है ।
इसमें घर वालों की सय है ।।
क्यों तथ्य विवेचन नहीं हुआ ।
शव का विच्छेदन नहीं हुआ ।।
क्यों पर्दा अब तक पड़ा हुआ ।
यह प्रश्न आज भी खड़ा हुआ ।।
इंदिरा सिंहासन पर बैठी ।
जो रहती थी ऐंठी ऐंठी ।।
महंगाई ने डाला डेरा ।
मैं भूख गरीबी ने घेरा ।।
राशन पानी का टोटा था ।
तब अर्थ तंत्र भी छोटा था ।।
सडसठ में चीन नहीं माना ।
दोबारा चाहा धमकाना ।।
नाथूला में संघर्ष हुआ ।
मेरा इसमें उत्कर्ष हुआ ।।
बासठ के क्रोधित शेरों ने।
मेरे रणवीर चितेरों ने ।।
एकल ने दस का खून किया ।
ड्रैगन बैगन सा भून दिया ।।
मुश्किल से शांत हुआ झगड़ा ।
ड्रैगन को झटका था तगड़ा ।।
पाकिस्तानी अय्यारों ने ।
सेना के कुछ मक्कारों ने ।।
ढाका में कत्लेआम किया ।
बंगाल समूचा जाम किया ।।
बंगाली शरणागत आये।
थे शेख मजीबुर घबराये ।।
इंदिरा ने चाहा समझाना ।
लेकिन नापाक नहीं माना ।।
सेना ने उठा लिया भाला ।
दो टूक पाक को कर डाला ।।
इतना भीषण संग्राम हुआ ।
दुनिया भर में कुहराम हुआ ।।
अंगारे उसके राख हुए ।
बंदी यूँ सैनिक लाख हुए ।।
दुनिया ने अब लोहा माना ।
अंदाज इंदिरा का जाना ।।
ऐसा सुंदर सौभाग्य हुआ ।
सिक्किम भी मेरा राज्य हुआ ।।
गोआ को पहले कब्जाया ।
सिक्किम भी साथ खड़ा पाया ।।
लेकिन कुछ काम किये काले ।
मेरे दिल में अब भी छाले ।।
संसोधन कर घोंपा भाला ।
मुझको निरपेक्ष बना डाला ।।
संजय ने अत्याचार किये ।
नामी नेता लाचार किये ।।
माँ बेटे की मनमानी से ।
संजय की क्रूर कहानी से ।।
मैं जर्जर सा कमजोर हुआ ।
आतंकवाद का जोर हुआ ।।
मनमानी कर ली जी भर के ।
आपातकाल लागू कर के ।।
घर घर में हाहाकार हुआ ।
आंदोलन का उदगार हुआ ।।
फिर जे पी की आंधी आयी ।
इंदिरा गांधी कुछ घबरायी ।।
जनता पार्टी का उदय हुआ ।
आगे का रस्ता सुलह हुआ ।।
निर्वाचन का एलान हुआ ।
यह निर्णय नेक महान हुआ ।।
इंदिरा गांधी की हार हुई ।
जनता की जयजय कार हुई ।।
जनता का फिर शासन आया ।
मैंने फिर से वैभव पाया ।।
बंदर भेली का खेल हुआ ।
जनता का शासन फेल हुआ ।।
आतंकों की बदरी छायी ।
इंदिरा फिर सत्ता में आयी ।।
पंजाब प्रांत को घेर लिया ।
गुरुओं का डेरा ढेर किया ।।
भिंडरवाला था दीवाना ।
इंदिरा को चाहा धमकाना ।।
स्वर्ण मंदिर में संग्राम हुआ ।
उसका भी काम तमाम हुआ ।।
मुद्दे को जान नहीं पायी ।
सच को पहचान नहीं पायी ।।
रक्षक ने हत्या कर डाली ।
मेरे सर नाच गयी काली ।।
घर घर में घूमी चंडाली ।
शोणित की बह निकली नाली ।।
लोगों ने मर्यादा खोयी ।
गुरवाणी फूटफूट रोयी ।।
अब और किसी दिन आऊँगा ।
अध्याय तीसरा लाऊँगा ।।
"हलधर" माध्यम से आता हूँ ।
खुद अपनी व्यथा सुनाता हूँ ।।
- जसवीर सिंह हलधर, देहरादून