माँ - ममता राठौर

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अपने बच्चों में मैं अपना बचपन देख लेती हूँ ,

मैं माँ बनके माँ आपकी छांव से लिपट लेती  हूँ। 

अपने भीतर न जाने कितने भावों को भर लेती हूँ.

नव वधु से नवसीखि अब बड़े बड़े जतन कर लेती हूँ। 

रात -रात जग के बिन आलार्म के जग लेती हूँ,

मैं  माँ बन के माँ  आपसे हर दिन  मिल लेती हूँ। 

परवल , टिंडे , बैगन  सब कुछ बना लेती हूँ,

माँ आप वाली खुशबू मैं भी मिला  देती हूँ। 

सब की झुलझुलाहटो को मैं हँस के सह लेती हूँ,

खुद को भूल कर मैं सब को जी लेती हूँ। 

झुठला देती हूँ सहला लेती हूँ कभी छुपा लेती हूँ,

मैं  माँ अम्बर को फाड़ कर चादर बना  लेती हूँ। 

सब के सोते सब काम निपटा लेती हूँ,

सब के जगते ही खुद को आराम में बता देती हूँ। 

सब की जरूरतों का आभाष कर लेती हूँ,

दिन निकलने से पहले रात की तैयारी कर लेती हूँ। 

मैं माँ बन के पूर्णता के एहसास से सँवर लेती हूँ,

घर को मंदिर ,खुद को धूप सी  बिखेर देती हूँ। 

- ममता सिंह राठौर, कानपुर,  उत्तर प्रदेश